Sengol: संगोल, जो इन दिनों काफी चर्चा में है, एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर है। संसद भवन के उद्घाटन के बाद से, इस पर कई बार बहस हुई है। 18वीं लोकसभा के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान संगोल को प्रकट होते देखा गया, जिससे यह विवाद फिर से उभर आया।

संगोल (Sengol) का इतिहास
संगोल (Sengol) का इतिहास चोल वंश से जुड़ा हुआ है। यह तमिल संस्कृति का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है, जिसे राजदंड के रूप में जाना जाता है। चोल वंश के राजा इसे सत्य और न्याय का प्रतीक मानते थे। संगोल को राजाओं के राज्याभिषेक के दौरान हस्तांतरित किया जाता था, जिससे यह शक्ति और सत्ता का प्रतीक बन गया।
वर्तमान विवाद
समाजवादी पार्टी के एक सांसद आर के चौधरी ने संगोल पर प्रश्न खड़ा किया है। उनका कहना है कि संगोल राजतंत्र की पहचान है, ये राजा का दंडा प्रतीत होता है यह राजा का दंडा ही है राजशाही हमारे देश में थोड़ी है जो लोकतंत्र के साथ मेल नहीं खाता। वे चाहते हैं कि संगोल को हटाकर संविधान की प्रति लगाई जाए।
राजनीतिक दृष्टिकोण
विपक्ष का आरोप है कि सत्ता पक्ष ने तमिलनाडु में अपना फैन बेस बढ़ाने के लिए संगोल को संसद में स्थापित किया। उनका मानना है कि संगोल का उपयोग राजनीतिक लाभ उठाने के लिए किया जा रहा है। सत्ता पक्ष का बचाव यह है कि संगोल नेहरू जी को माउंट बेटन द्वारा भेंट किया गया था, जो स्वतंत्रता का प्रतीक है।
संवैधानिक और सांस्कृतिक संदर्भ
14 अगस्त 1947 को, माउंट बेटन ने नेहरू जी को संगोल भेंट किया था, जो भारत की स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता है। संगोल पर नंदी, लक्ष्मी, और कोडीमरन के प्रतीक अंकित हैं, जो न्याय, संपन्नता और उर्वरता का प्रतिनिधित्व करते हैं।
विवाद के विभिन्न पहलू
विपक्ष का कहना है कि संगोल का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, जबकि सत्ता पक्ष का दावा है कि इसका प्रमाण इंडियन एक्सप्रेस की कटिंग में है। यह विवाद सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में संगोल के महत्व और इसकी प्रामाणिकता पर आधारित है।
संगोल (Sengol) को हटाने और उसकी जगह संविधान की प्रति रखने का प्रस्ताव समाजवादी पार्टी के सांसद द्वारा दिया गया है। इस विवाद का समाधान ऐतिहासिक प्रमाणों और संवैधानिक मान्यताओं के आधार पर किया जाना चाहिए। संगोल का स्थान और महत्व भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में विचारणीय है।